लेखक- के.विक्रम राव (वरिष्ठ पत्रकार)
कश्मीर की वादियों से बही सर्द बयार का असर है कि शायद श्रीमती महबूबा जावेद इकबाल मुफ्ती नरम पड़ गयीं। वे बोली कि अब भारतीय तिरंगा तथा कश्मीर जम्मू—लद्दाख वाले हल के निशान वाला लाल परचम को वे एक साथ फहरायेंगी हालांकि पीडीपी से आयीं कश्मीर की तेरहवीं मुख्यमंत्री साठ—वर्षीया महबूबा ने गत माह कहा था कि ''अब कश्मीरी झण्डा ही मेरा है, मैं तिरंगा नहीं लहराउंगी।'' इस बदलाव का श्रेय अमित शाह को कदापि नहीं मिलेगा। कारण नितांत सरल है। अगले सप्ताह प्रस्तावित जनपद विकास परिषद के निर्वाचन में नामांकन पर भारतीय संविधान और सार्वभौमिकता की सौगंध लेनी होगी। वर्ना वह निरस्त कर दिया जायेगा।
केन्द्रीय गृहमंत्री ने नवप्रसारित गुपकर समूह घोषणा के कारण इस जनगठबंधन पर हमला किया था। अमित शाह बोले थे कि यह ''गैंग'' कश्मीर मसले का वैश्वीकरण कर रहा है। विदेशी सेना को आमंत्रित करना चाहता है। चीन की मदद की याचना तो डा. फारूख अब्दुल्ला कर ही चुके हैं। ये लोग कश्मीर पर धारा 370 वापस थोपना चाहते हैं।
इस मुददे पर चन्ट भाजपा ने बड़ी होशियारी से कांग्रेस को कठघरे में ला दिया है। क्या भारत की सबसे पुरानी पार्टी राष्ट्रीय कांग्रेस इन अलगाववादियों के गठबंधन में रहकर स्थानीय निर्वाचन में शरीक होगी? कश्मीर प्रदेश कांग्रेस के अध्यक्ष गुलाम अहमद मीर का जवाब है कि सीटों का बंटवारा तो हो रहा है। अनंतनाग की सीट कांग्रेस ने मांगी है। कांग्रेस के प्रवक्ता रणदीप सुरजेवाला ने कह भी दिया कि उनकी पार्टी गुपकर घोषणा से जुड़ी नहीं है, जिसमें धारा 370 को पुन:स्थापित करने की मांग है। कांग्रेस इस गठबंधन में शामिल भी नहीं है। अर्थात सोनिया—राहुल के लिए न निगलने न उगलने वाला संकट आ गया है। क्या कांग्रेस डा. फारूख की बात मानकर चीन का हस्तक्षेप पसंद करेगी? बिहार विधानसभा चुनाव में राहुल की दुर्गाति के पश्चात और (प्रियंका के क्षेत्र) उत्तर प्रदेश विधानसभा में आठ उपचुनावों में जमानत गंवाने के बाद कांग्रेस अब कश्मीर में फंस गई। यह गंभीर स्थिति है क्योंकि राष्ट्रवादिता का मसला है। भले ही भाजपा अभी तक मुफ्ती के साथ सत्ता भोग चुकी हो। इसी संदर्भ में एक ताजा मसला भी उठा है। यदि इस गुपकर गठबंधन से भाजपायी सरकार इतना आक्रोशित है तो उसके सांसदों ने अभी तक त्यागपत्र क्यों नहीं दे दिया? डा. फारूख अब्दुल्ला, अकबर लोन तथा हसनैन मसूदी (नेशनल कांफ्रेंस), और फैयाज अहमद (पीडीपी) की कथनी और करनी में फर्क दिखता है।
फिलहाल इस पूरे प्रसंग में कश्मीरी इतिहास में रुचि रखने वालों को गुपकर शब्द पर उत्सुकता जरुर होगी। यूं श्रीनगर गये हर व्यक्ति को यह चौड़ी गुपकर सड़क जरुर भायी होगी। यह एक भव्य भवन है जहां तीन पूर्व मुख्यमंत्री रहते हैं। पिता—पुत्र भी हैं। इसके निकट बने प्राचीन तलय मंजिल (''भाग्य का प्रसाद'') का उल्लेख पहले हो जाये। यही 9 अगस्त 1953 को राजप्रमुख युवराज कर्ण सिंह (बाद में कांग्रेस सांसद रहे) ने प्रथम प्रधानमंत्री शेख मोहम्मद अब्दुल्ला को बर्खास्त किया था। वे गिरफ्तार भी किये गये थे। तब खाड़ी देशों की भांति असली शेख बनने की फिराक में उन्होंने पाकिस्तान से सौदा पक्का कर लिया था। पाक प्रधानमंत्री मोहम्मद अली से समर्थन की प्रत्याशा थी। यदि रफी अहमद किदवाई ऐन वक्त पर श्रीनगर पहुंच कर गुलमार्ग में शेख को कैद न करते तो घाटी इस्लामी पाकिस्तान में चली जाती। प्रयाग के पंडित की लापरवाही तथा उपेक्षा का यही नतीजा होता। मगर बाराबंकी के सुन्नी ने कश्मीर बचा लिया भारत के लिए।
आज के इस विशाल गुपकर भवन का इतिहास शेख अब्दुल्ला से दशकों से ज्यादा जुड़ा रहा। चौथी सदी के (इस्लाम के आविर्भाव के पूर्व) यह गोपालादित्य के नाम से गोपाद्रि कहलाता था। यहीं विप्र जन ने गोप अग्रहार (मंदिर) बनाया था। इस्लामिस्टों के हमले के बाद यह गुपकर हो गया। शेख की नजर इस विशाल भूखण्ड पर पहले से थी। कश्मीर के के प्रथम प्रधानमंत्री बनते ही शेख ने पटवारी को बुलवाया और आदेश दिया कि समूचे इलाके को उन्हें सौंपें। वहां एक भारतीय फौजी अफसर रहता था। खाली नहीं किया। कहासुनी में सेनाधिकारी ने वजीरे—आजम पर पिस्तौल तान दी। फिर सरकार के हस्तक्षेप से आवंटन हो गया। शेख ने तब पूछा: ''सीमा क्या होगी? चौहद कैसे तय करोगे?'' राजस्व अधिकारी बोला ''मालिक, जहां तक आपका पैर पड़े।' बस विशाल भूभाग तब से शेख और अब उनके पुत्र, पोते और मित्र मुफ्ती वंशज का हो गया। मगर कश्मीर के इस शेख की दुर्दश ऐसी है कि इसकी मजार पर दिन रात पहरा लगा रहता है। आवाम से खतरा है कि कहीं वह उनकी कब्र उखाड़ न दे। तो इस गुपकर रहकर आज उसके अध्यासीजनों भारत से अलग होने का सपना संजो रहे हैं।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार है)