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16 नवंबर: बलिदान दिवस क्रांतिवीर करतार सिंह साराभा जी... हिस्सा थे उस महान समूह का, जो जंग लड़ रही थी दुश्मनों की छाती पर, अर्थात उनकी ही माटी पर

आज उस अमर वीर बलिदानी के पावन बलिदान दिवस पर सुदर्शन परिवार करतार सिंह साराभा को बारम्बार नमन करते है

Sumant Kashyap
  • Nov 16 2024 8:11AM
कोई लाख भले ही बिना खड्ग बिना ढाल के गाने गा ले और कोई कितना भी आज़ादी की ठेकेदारी सडक से संसद तक ले ले लेकिन उनकी चीख और नकली दस्तावेज किसी भी हालत में उन वीर बलिदानियों के बलिदान को नहीं भुला सकते है जो उग्र जवानी में ही इस वतन के नाम अपनी एक एक सांस लिख कर चले गये।

इनका ये बलिदान बिना किसी स्वार्थ और भविष्य की योजना अदि के, इनके नाम कहीं से भी कोई दोष नहीं है इन्होने हमेशा ही भारत माता को जंजीरों से मुक्त करवाने का सपना देखा था जिसके लिए इन्होने उन अंग्रेजों को सीधी चुनौती दी जिनके दरबार में अक्सर आज़ादी के कुछ ठेकेदार हाजिरी लगाते दिखते थे।
 
करतार सिंह का जन्म लुधियाना जिले के ग्राम सराभा में 24 मई 1896 को ग्रेवाल परिवार में हुआ था। पिता सरदार मंगल सिंह की मौत उसके बाल्यकाल में हो गयी। बाबा ने ही उसका लालन पालन किया। प्रारंभिक तालीम गावं में हासिल करने के बाद लुधियाना के खालसा कालेज में आगे की पढाई की। 

हाईस्कूल पास करने के बाद उसने उच्च अघ्ययन के लिए अमेरिका जाने का निर्णय किया। एक जनवरी 1896 को अमेरिका पंहुच कर यूबा सिटी में खेतीबाड़ी का काम किया और तीन माह तक प्रतिदिन 12 घंटे काम करके कुछ डालर जमा किए। इसके बाद यूनिवर्सिटी आपफ कैलिर्फोनिया बर्कले में दाखिल हुए।

अपने तीन माह की मेहनत मजदूरी की जिंदगी के दौरान ही वह पूर्णत जान चुके थे कि भारतीय लोग अमेरिका में अपना जीवन किस तरह से व्यतीत कर रहे थे। उन दिनों अमेरिका में रहने वाले भारतीयों में तकरीबन 90 फीसदी सिख प्रवासी थे। 

घोर अपमानजनक हालात का कारण था कि उनके अपने ही वतन पर एक छोटे से मुल्क इंगलैंड की हुकूमत कायम थी। अन्य भारतीयों की तरह ही करतार सिंह में भी अपने भारत को आजाद कराने की भावना बलवती होने लगी। यही वह वक्त था जबकि करतार सिंह सराभा की मुलाकात हुई लाला हरदयाल के साथ।

दिसंबर 1912 में ‘स्टैंफर्ड यूनिवर्सिटी’ में फिलासफी के प्राध्यापक लाला हरदयाल बर्कले यूनिवर्सिटी के छात्रों को संबोधित करने के लिए पधारे। लाला जी ने नौजवानों को ललकारा कि वे इंजीनियर, डाक्टर अथवा अफ़सर बनने के स्थान पर वतनपरस्त बहादुर क्रांतिकारी बनें। 

उन्होने कहा कि अंग्रेजी राज के जूए तले करके जीवित रहने से हज़ार गुना बेहतर होगा वतन की आज़ादी के लिए मौत का आलिंगन करना। करतार सिंह एवं अन्य सात छात्रों ने लाला हरदयाल की इस चुनौतीपूर्ण ललकार को स्वीकार किया। इन सभी ने मिलकर ‘बर्कले यूनिवर्सिटी’ में नालंदा छात्रावास की नींव रखी। 

करतार सिंह सराभा ने भारतीय श्रमिकों को संगठित करने के लिए कारखानों और खेत खलियानों के जबरदस्त दौरे किए। ‘हिंदी एसोसिएशन आफ पेसिफिक कोस्ट’ की स्थापना की गई जोकि बाद में ‘गदर पार्टी’ में तबदील हो गई । अमेरिका के सैंनफ्रांसिसको शहर का युगांतर आश्रम इसका मुख्यालय बना। 

इसी को आजकल ‘गदर मैमोरियल’ बना दिया गया है । करतार सिंह गदर पार्टी के संस्थापक सदस्यों में एक रहे थे। जब पार्टी का उर्दू अखबार ‘गदर’ एक नवम्बर 1913 को निकला गया तो सरदार सराभा ने खुद को उसके काम में झोंक दिया था। 

कामागाटामारु’ जहाज जब कनाडा के वैंनकूवर नगर के तट पर पंहुचा तो कनाडा की सरकार ने उन भारतीय अप्रवासियों को वहां उतरने की अनुमति प्रदान नही की। एक माह से अध्कि यह पानी का जहाज तट पर हर तरह की यातना और जिल्लत को झेल कर पड़ा रहा। 

आखिरकार इस जहाज को अपने अभागे यात्रियों के साथ वापस भारत वापिस लौटने के मजबूर होना पड़ा। इस जहाज के मुसाफिरों के नेता बाबा गुरदीप सिंह के साथ जापान के कोबे नगर में करतार सिंह सराभा ने मुलाकात की और उनसे हथियारबंद क्रांति के बाबत बातचीत की।

पहली आलमी जंग प्रारम्भ हो चुकी थी और गदर पार्टी नेतृत्व और अमेरिका में निवास करने वाले भारतीयों को यह स्थिति अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ क्रांति करने का यह बहुत अच्छा अवसर प्रतीत हुई। गदर पार्टी के क्रांतिकारी, भारतीय फौजियों को प्रेरित करके अंग्रेज हुकूमत के बरखिलाफ स्वतंत्रता संग्राम संचालित करने की योजना बनाने मे जुट गए।
 
करतार सिंह सराभा इस योजना को अंजाम देने के लिए भारत पंहुच गए। गदर पार्टी की ललकार को सुनकर अमेरिका मे बसे तकरीबन दस हजार भारतीयों में से नौ हजार भारत आने के लिए तत्पर हो गए थे। इनमें से अधिकतर तो बंदरगाहों पर ही गिरफ्तार कर लिए गए। बहुत सारे भारतीयों को अंग्रेंज पुलिस द्वारा गोली से उड़ा दिया गया।

करतार सिंह सराभा अपने साठ साथियों के साथ श्रीलंका के रास्ते पंजाब पंहुच गए। उन्होने पंजाब का वातावरण अत्यंत प्रतिकूल पाया। तीन लाख से ज्यादा पंजाबी नौजवान अंग्रेजी फौज में भर्ती होकर के आलमी जंग में ब्रिटेन का साथ दे रहे थे। महात्मा गांधी और उनकी कांग्रेस स्वयं जंग के बाद आज़ादी पाने की उम्मीद में अंग्रेजों का साथ दे रहे थे।

सिख गुरुद्वारों के सामंत अधिकारियों ने तो गदर पार्टी के कांतिकारियों का गुमराह युवा करार दे दिया। ऐसा प्रतीत हो रहा था कि भारत वस्तुतः गदर पार्टी के स्वतंत्रता संग्राम के लिए तत्पर नहीं था।   करतार सिंह सराभा पराजय स्वीकार करने के लिए कतई उद्यत नहीं थे। 

मराठा विष्णु गणेश पिंगले, बंगाल के रासबहारी बोस और शचींद्रनाथ सान्याल जैसे क्रांतिकारियों के साथ मिलकर वह किसानों, मजदूरों और फौजियों को संगठित करने में जुट गए। छावनी छावनी जाकर फौजियों से मिलने लगे तथा उनको क्रांति के लिए प्रेरित करने में जुट गए । कोलकता जाकर हथियारों का प्रबंध करने का प्रयास किया।

जब 8 जनवरी 1914 को ‘गदर’ अखबार का पंजाबी संस्करण निकाला गया तो करतार सिंह का दायित्व और भी अधिक बढ गया था ।मात्र 16 साल की उम्र में करतार सिंह सराभा गदर पार्टी के अग्रणी कर्णधारों में से एक रहा था। वह गदर पार्टी के अखबारों का संपादक, लेखक और कंपोजिटर था, साथ ही साथ वह स्वयं प्रेस को चलाता भी था।

गदर पार्टी द्वारा 21 फरवरी 1915 विद्रोह प्रारम्भ करने की तारीख तय कर दी गई। विष्णु गणेश पिंगले और करतार सिंह सराभा हिंदुस्तानी फौजियों के साथ विचार विनिमय करने के लिए मेरठ, आगरा, कानपुर, लाहौर, इलाहबाद आदि क्षेत्रों के छावनियों में गए। 

इसी दौरान उन्हें यह ज्ञात हुआ कि उनका कोई अन्तरंग सहयोगी गद्दार बन चुका है और गदर पार्टी की विद्रोह की योजना के बारे में अंग्रेजों को सब कुछ बता चुका है। करतार सिंह साराभा ने गदर पार्टी के अग्रणी नेता रासबिहारी बोस से विद्रोह की तिथि को 19 फरवरी तय करने के लिए कहा।

योजना के अनुसार करतार सिंह विद्रोह का आगा़ज़ करने के लिए फिरोजपुर छावनी में अपने साथियों के साथ पंहुचे तो इससे पूर्व ही अंग्रजों को इस योजना का पता लग चुका था। नतीजतन करतार सिंह सराभा के फौजी साथियों को गिरफ्तार कर लिया गया। 

करतार सिंह किसी तरह से वहां से बच निकले और नाक़ाम होकर लाहौर वापस लौट आए। पराजय स्वीकार करके बैठ जाना उनकी फितरत में कदाचित नहीं था।कुछ दिनों के बाद फिर से फौजियों के साथ आगे विद्रोह की योजना पर बात करने के लिए सरगोधा छावनी गए तो वहां एक पुलिस मुख़बिर ने उन्हे गिरफ्तार करा दिया।

गिरफ्तार करके करतार सिंह सराभा को लाहौर लाया गया। इकसठ साथियों के साथ उनके खिलाफ अंग्रेज सरकार के विरुद्व राजद्रोह की योजना रचने और उसे अंजाम देने का इल्शाम आयद किया गया। हांलाकि अभियुक्तों में वह सबसे कम आयु मात्रा 18 साल के थे तथापि अंग्रेंज हुकूमत ने उनको सबसे अधिक खतरनाक करार दिया। 

अंग्रेंज जज ने अपने फैसले में लिखा था कि अपने अमेरिकी प्रवास और भारत में गदर पार्टी की विद्रोही योजना को कोई भी ऐसा पहलू कदाचित नहीं रहा जिसमें कि करतार सिंह सराभा का किरदार नहीं रहा हो अथवा उसने इसमें कोई महत्वपूर्ण भूमिका अदा नहीं की हो।

राजद्रोह के मुकदमे के दौरान जब करतार सिंह सराभा के बयान का वक़्त आया तो उसने इस अवसर का भरपूर उपयोग स्वयं को बचाने के लिए कदापि नहीं किया वरन् उसने अपने क्रांतिकारी विचारों के प्रसार प्रचार के लिए ही किया। उसने स्वयं द्वारा अंजाम दिए सब कामों को बाकायदा स्वीकार किया और उनका विस्तारपूर्वक औचित्य भी बताया।

करतार सिंह सराभा ने अंग्रेज अदालत में सिंह गर्जना करते हुए ऐलान किया कि वतन की आज़ादी की खातिर वह बारम्बार मृत्यु का वरण करने के लिए उद्यत है। अंग्रेज जज ने करतार सिंह सराभा को सजा ए मौत सुना दी। 16 नवम्बर सन् 1916 को करतार सिंह सराभा को लाहौर जेल में फांसी दे दी गई थी।

हिंदुस्तान की जंग ए आजादी में गदर आंदोलन की बहुत ही अहम भूमिका रही । करतार सिंह सराभा गदर पार्टी के अग्रणी क्रांतिकारियों में एक थे। करतार सिंह सराभा को अपना गुरु का दर्जा प्रदान करने वाले सरदार भगत सिंह का कहना था कि ‘क्रांति तो करतार सिंह सराभा की रग रग में रवां रही थी’।

वस्तुतः करतार सिंह सराभा क्रंति की खातिर जिंदा रहे और क्रांति के लिए ही बलिदान हो गए। करतार सिंह सराभा उन विरल व्यक्तित्वों में से एक रहे जिनमें कि ग्राम्य जीवन की सहज सरलता मौजूद थी तो साथ ही साथ एक अत्यंत तीक्ष्ण विवेचनात्मक दिमाग भी विद्यमान था।

वह एक असाधारण श्रमिक भी थे और एक विलक्षण स्कालर भी। वह जितनी सहजता के साथ साधरण किसान मजदूरों के साथ बात कर सकते थे, उतनी ही विलक्षणता के साथ लाला हरदयाल जैसे दार्शनिक चिंतकों के साथ बहस कर सकते थे। 

भगत सिंह जी के अनुसार – स्वतंत्रता संग्राम के वह एक वीर निर्भीक योद्वा सेनापति रहे तो एक विलक्षण विचारक भी रहे।करतार सिंह सराभा के अजी़म बलिदान की महक आजा़दी की फिजा़ओं में सदैव ही मौजूद रही है। जब तक ‘इंकलाब जिंदाबाद’ का नारा समूचे भारत में गूंजता रहेगा तब करतार सिंह सराभा का नाम भी प्रतिध्वनित होता रहेगा क्योंकि उन्हीं के परम अनुयायी भगत सिंह ने हमारे वतन को इंकलाब जिंदाबाद का महान कालजयी नारा दिया था।

आज उस अमर वीर बलिदानी के पावन बलिदान दिवस पर सुदर्शन परिवार करतार सिंह साराभा को बारम्बार नमन करते हुए जनमानस से एक बार से बिना खड्ग बिना ढाल वाले गाने पर पुनर्विचार करने का आग्रह करता है।
 
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