जब से नरेंद्र मोदी ने बनारस की सीट से चुनाव लड़ना शुरू किया है, तब से मीडिया में यहां के बारे में लगातार कुछ न कुछ लिखा जाने लगा है। कई बार तो लगता है कि बनारस के बारे में सब कुछ लिखा जा चुका है और अब लिखने के लिए बाकी कुछ बचा ही नहीं है। लेकिन, क्या वास्तव में ऐसा ही है...!
बीते सप्ताह पहली बार बनारस जाने का एक मौका मिला। वहां पहुंचने से पहले लग रहा था कि बनारस के बारे में ऐसा क्या कुछ है, जो लिखना शेष है…! ऐसा क्या है जो हम बनारस के बारे में नहीं जानते हैं...! बनारस के बारे में ऐसा क्या है जो अभी भी लोगों को बताया जाना बाकी है...!
यात्रा शुरू करने से पहले जब वहीं के मूल निवासी अपने एक साहित्यकार और पत्रकार मित्र से इस बारे में बातचीत की तो उन्होंने बताया कि वह स्वयं तो इस समय बनारस में मौजूद नहीं हैं लेकिन जब आप बनारस से वापस लौटेंगे तो आपके पास कुछ न कुछ ऐसा जरूर होगा जिसे आप लोगों को जरूर बताना चाहेंगे।
भारत में मौजूदा सबसे तेज चलने वाली रेल ‘वंदे भारत’ में बैठे-बैठे भी यही सब सोचता रहा कि बनारस का अक्खड़पन, बनारस के पान और खान-पान की महक, बनारसियों का भौकाल, मदनमोहन मालवीय की कहानियां और काशी विश्वनाथ मंदिर..., इस सब के बारे में किताबों, अखबारों और फिल्मों में खूब तो पढ़ा, सुना और देखा है, अब इसमें नया क्या होगा, जिसे एक बार लिखकर फिर से बताना जरूरी समझा जाए।
लेकिन, आधी रात को ट्रेन से उतरकर, बनारस की धरती पर कदम रखते ही इसका अहसास हो गया कि यहां निश्चित रूप से कुछ अलग माहौल है। स्टेशन से बाहर आते-आते लगा कि यह एक ऐसा वातावरण है जिसमें परवाह और बेपरवाही तथा मनुहार और जिद दोनों की एक साथ मौजूदगी है।
अपने मेजबान के घर तक पहुंचते-पहुंचते रास्ते में में ऐसे कई चिह्न दिखे जिनसे यह अहसास होने लगा कि इस शहर ने अपनी सांस्कृतिक विरासत को कितनी खूबसूरती से संजोकर रखा हुआ है। कुछ ही कदमों की दूरी पर कोई शिवालय, फूल और प्रसाद की दुकानें, कोनों और चौराहों पर महामना की साफ-सुथरी मूर्तियां, दुकानों के साइनबोर्डों पर शिव के प्रतीकों की अंतहीन मौजूदगी, असामान्य साफ-सफाई और हवा में मौजूद पवित्रता इस बात की लगातार पुष्टि करती रहीं।
दो दिन के प्रवास के दौरान कई तरह के लोगों से लगातार मिलना-जुलना होता रहा। इस दौरान कभी किसी से पत्रकारिता पर बात हुई, कभी राजनीति पर बात हुई, कभी साहित्य की भी बात हुई तो कभी मानव व्यवहारों से जुड़ी पेचीदगियों पर भी बातचीत होती रही। लेकिन, बातें ही हुईं, ‘बहस’ में नहीं बदलीं। पिछले दो दशकों से कई अलग-अलग शहरों में पत्रकारिता में सक्रिय होने के दौरान ऐसा कम ही हुआ है कि बातें तो हों और वे बहस में न बदलें। और, कटु बहस में तो कतई न बदलें। पर, कई बार खुद से कोशिश करने के बावजूद बातें बातें ही रहीं, बहस में न बदल पाईं।
बनारस की गंगा के ऊपर से होकर गुजरे तो दिल्ली वाली अपनी यमुना की याद आई। साफ-सुथरी गंगा को देखकर यह मानना मुश्किल होने लगा कि दोनों नदियां आपस में सगी बहनें हैं। अपनी यमुना का पानी हमने जितना ‘काला’ और ‘झागदार’ कर दिया है, वहीं बनारसी गंगा का पानी उतना ही साफ नजर आ रहा था। दोनों नदियां एक ही देश में हैं। कहीं कोई सरकारी प्रयासों में अंतर होता होगा लेकिन नदियों और दूसरे प्राकृतिक संसाधनों को संजोने में लोक प्रयासों की भी एक बड़ी भूमिका होती ही है। हम राजधानी क्षेत्र में रहने वालों और बनारस के लोगों में यह एक अंतर शायद है ही जो इन दोनों पवित्र नदियों के मौजूदा स्वरूप को देखकर महसूस होता रहा। हम लोग अपनी यमुना नदी की पवित्रता को बनाए रखने में बिल्कुल नाकाम रहे हैं तो कम से कम बनारसिये इस काम में हमसे बहुत आगे निकल गए हैं।
शाम को बनारस हिंदू विश्वविद्यालय कैंपस में तफरीह करने के दौरान अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय की याद आने लगी। दोनों शिक्षा के अग्रणी केंद्रों के बीच करीब 180 डिग्री का अंतर दिखा। मुझे दोनों ही विश्वविद्यालयों में शाम के समय घुमक्कड़ी करने का मौका मिला है। लेकिन, यहां भी अंतर जमीं-आसमां का है। बनारस हिंदू विश्वविद्यालय में मैं पहली बार गया जबकि अलीगढ़ विश्वविद्यालय मेरे गृह जनपद में है। दोनों कैंपस में बिल्कुल अलग वातावरण रहता है। बनारस में जो खूबसूरती दिख रही थी, वह अलीगढ़ में नदारद रहती है। जो उल्लास और ऊर्जा बनारस में दिख रही थी, वह नफासत और तवानाई अलीगढ़ में कभी नजर नहीं आई। हालांकि, मैं अलीगढ़ विश्वविद्यालय में ‘डर का माहौल’ तो नहीं कह सकता, लेकिन बनारस के इस विश्वविद्यालय प्रांगण में एक अलग ही सुकून मिलता है।
बनारस हिंदू विश्वविद्यलय में मौजूद काशी विश्वनाथ मंदिर संभवत: किसी शिक्षा संस्थान में बना सबसे भव्य मंदिर है। मंदिर में मौजूद भीड़ में सबसे ज्यादा संख्या किशोर और युवाओं की नजर आई। माना जाता है कि उम्र बढ़ने के साथ मंदिरों की ओर झुकाव भी बढ़ता जाता है लेकिन, यहां बूढ़े नहीं दिखे। विश्वविद्यालय कैंपस है तो संभवत: ज्यादातर विद्यार्थी ही होंगे। वे कभी तफरीह करते नजर आ रहे थे तो कभी अध्यात्म की छाया उन पर पड़ती नजर आ रही थी। यह भी एक अलग तरह का अनुभव रहा।
कुल मिलाकर, बनारस के बारे में पढ़-लिखकर इस शहर के बारे में जानकारियां तो जुटाई जा सकती हैं, लेकिन यदि इस शहर को ‘महसूस’ करना है यहां एक बार जरूर आइए। मेरा प्रवास दो दिन का ही था, जिसमें कई व्यक्तिगत काम भी निपटाने थे तो शहर ज्यादा घूम नहीं सका। अगली बार जब कभी भी बनारस जाऊंगा तो थोड़ा और घूमुंगा और शहर को और ज्यादा समझने की कोशिश करूंगा...।