मातृ पितृ पूजन दिवस तो प्रति वर्ष मनाया जाता हैं परंतु इस वर्ष के परिपेक्ष में सोचा कि कुछ समसामयिक लिखूँ।
वैसे तो मैं वैलेंटाइन डे का मेरे महाविद्यालय जीवन से विरोध करता हूँ। पर मैंने हिंदुस्थान में टीवी पर इसका पहला विरोध 2005 में किया और विकल्प के तौर पर मातृ पितृ पूजन दिवस के रूप में प्रारंभ किया। आज मातृ पितृ पूजन के कार्यक्रम में विश्वभर में सहभागी होने वालों की संख्या जर्मनी के बराबर, या 21 छोटे देशों के बराबर है।
भारत की बात करें, तो गुजरात की कुल जनसंख्या के बराबर। वैलेण्टाइन डे, या किसी भी विकृति को प्रकृति बनाने के बजाय विकल्प की स्वीकृति बनाना ज़रूरी है। स्वीकृति ऐसे ही नहीं मिलती। प्रवाह के विपरीत चलने की साहस के साथ उसमें साथ देने वाले जुटने तक का धैर्य चाहिए, तब जाकर अनुकरणीय अनुयायी बनते हैं।
आज वैलेण्टाइन डे का विरोध क़रीब क़रीब समाप्ति की ओर है। इसे लोकप्रियता के आधार पर राजनैतिक दलों ने, यहाँ तक की हिंदू संघटनों ने मौन स्वीकृति दी है। ऐसा करने वालों ने विदेशी सांस्कृतिक आतंकवाद के आक्रमण के आगे हार स्वीकार की है? मैं कल भी इसके सामने डट कर खड़ा था और आज भी हूँ और कल भी रहूँगा।
मेरा विश्वास है, एक दिन सब कुछ घटने, लूटने और पिटने के बाद समाज को पुनः जड़ों की ओर आना ही होगा। उस समय हमारे संघर्ष की मशाल उनको दीपस्तम्भ जैसी उपयोगी साबित होगी। सत्य संकल्पों का विजय निश्चित है। बस आपको संपूर्ण विश्वास के साथ धैर्य रखना चाहिए।
माता पिता के बारे में तो क्या कहें? क्या विश्व के किसी भी महापुरुष या वैज्ञानिक या उद्योगपति की कल्पना उसके मां बाप के बगैर हो सकती है? परंतु बहुत सी चीजें जीवन में सहजता से प्राप्त होने के कारण उनका महत्व समझ में नहीं आता। कभी समझ आता है, पर देर हो चुकी होती है। कड़वा है, पर सच यह है की आज देशभर में अनाथालयों एवं वृद्धाश्रमों की संख्या बहुत गति से बढ़ रही है। इस अपराध को छिपाने के लिए उनको सुंदर-सुंदर और मोहक नाम भले ही दिये जा रहे हों, पर बुजुर्गों में मनोरोगी अप्रत्याशित रूप में बढ़ रहे हैं। उनके आत्महत्या का अनुपात भी चिंताजनक स्थिति से ऊपर जा रहा है। दूसरी तरफ़ घर में बड़े बुजुर्गों, दादा-दादी के न होने से छोटे बच्चों के मन पर संस्कारों की कमी है। उनमें एकाकीपन बढ़ रहा है। आत्मविश्वास घट रहा है। जीवन की कठिन परिस्थितियों में भी साथ खड़े होने वाले नाते रिश्ते का महत्व पता ही नहीं चल रहा है।
इसके कारणों की बात करे तो मुख्यतः, हम अपनी महान परंपराओं से दूर जा रहे हैं। परंपरा को तोड़ने के लिए पुस्तकों, लेखकों, फ़िल्मों, सीरियलों, न्यूज चैनलों, उनके एंकर्स और पैनलिस्टों की फ़ौज खड़ी है। हम अपनी संस्कृति को छोड़कर विदेशी विकृति को संस्कृति मानकर अंध अनुकरण कर रहे हैं। हमारी इन ग़लतियों को बताने वाले लोग हमारे व्यक्तिगत जीवन से, पारिवारिक जीवन से, समाज से ही नहीं, लगता है विश्व से ही लुप्त होते जा रहे हैं। हमें भी कड़वा या तीखा पर सच बोलने वाले नहीं, हमारे सहमति की बात करने की आदत लगी हैं।
व्यक्ति घर में भाई से घृणा करता है और फ़्रेंड्स क्लब में पैसे देकर मित्र ढूंढने जाता है। व्यभिचारीता को देश का सर्वोच्च न्यायालय क़ानूनन मान्यता देता है। इतने बड़े ग़लत फ़ैसले पर संसद मौन है। समाज अनजान है। जो जानता है, वह बोलने से डरता है। जिन्होंने सब कुछ छोड़ कर ईश्वर के लिए अपना जीवन समर्पित किया वह साधु संतों की चुप्पी मेरे लिए सबसे पीड़ादायक है। मीडिया तो इसे आधुनिकतावाद कहकर स्वागत कर रहा है। इसकी सहमति देने वालों को मैं पूछ रहा हूँ कि क्या आपके घर की महिला के लिए भी आप यह नियम स्वीकार करेंगे? यदि आप करेंगे, तो भी हम तो नहीं करेंगे। हम बोलेंगे, चाहे इसके लिए हमें अपराधी ही क्यों नहीं ठहराया जाए।
मैं सदैव अपनी बात को केवल समस्या तक नहीं रखता, इसलिए समस्या से समाधान की बात करते हैं।आध्यात्मिक मार्ग का समाधान चाहिए, तो सबसे पहले जीवन में गुरू बनायें। दत्त भगवान ने 28 गुरू किए थे।केवल टीवी पर चमकने वाले नहीं। आप जिनके साथ प्रश्नों के उत्तर प्राप्त कर सकते हैं, धर्म शास्त्र समझा सकते हैं ऐसे गुरू।
सामाजिक समाधान है, बुराई के विरुद्ध बिंदास बोलें। सत्य और निष्ठा पर किसी भी परिस्थिति पर क़ायम रहें। अत्याचार करने वाला व्यक्ति या संस्था कितनी भी बड़ी हो, उसका विरोध करें। बच्चों को आने वाले कल की विपरीत परिस्थितियों के बारे में अवश्य बताएँ। उनको जागरूक करें। जैसे राजमाता जिजाऊ ने किया था। माता-बहनों को बताएं। समाधान ख़रीदा नहीं जा सकता। छत्रपति चाहिए, तो जिजाबाई होना होगा। कुल का भी उद्धार होगा और राष्ट्र धर्म का भी।
आसपास के सज्जन शक्ति को बढ़ाएं। संघर्ष करने वाले का साथ दें। नहीं दे सकते, तो पीछे से मदद करें। वह भी नहीं कर सकते, तो कम से कम जो संघर्ष कर रहे हैं, उनका विरोध न करें। हमारे समाज व्यवस्था का सामर्थ परिवार है और परिवार का सामर्थ हमारे रिश्ते हैं। कुछ प्रीपेड, तो कुछ पोस्टपेड। आज हम इंश्योरेंस का प्रीमियम भरने के लिए तो सजग हैं। लेकिन रिश्तों के प्रीमियम के किश्तों के बारे में नहीं! भौतिक घर के कर्ज के किश्तों के लिए तो सजग हैं, लेकिन आत्मीय घर के किश्तों के लिए सजग नहीं। कर्तव्य के क़र्ज़ के किश्तों को भर रहे हैं आप? और माता पिता तो वह रिश्ता है, जो बदला नहीं जा सकता और रिश्ता कोई भी हो, उसे बदलने के बारे में सोचने वालों के रिश्ते टिक नहीं सकते। रिश्तों के बारे में हम वापसी के डोर को काट दें। इसमें केवल आगे जाना है। हिंदू धर्म तो पुनर्जन्म मानता है। कोई बदलाव करना हो, तो अगले जन्म के लिए सोचें। लेकिन पत्नियाँ पति के लिए सात जन्मों का बंधन माँगती हैं। यह मज़बूती ही हमारा सामर्थ्य है। आपके माता पिता संस्कारित थे, तो आप इतना लिंक खोलकर पढ़ रहे हैं। आप अपने के बच्चों को, वह उनके बच्चों को इसका महत्व समझायें, तो किसी पीढ़ी को वृध्दाश्रम में जाना ही नहीं होगा।
आप बच्चों को जितना समय दे रहे हैं, उससे ज्यादा आपका बच्चा टीवी, मोबाइल और सोशल मीडिया में समय दे रहा है, तो आपके लिए चिंता का सबब है। इस स्थिति को बदलें। इसके लिए वैलेंटाइन डे नहीं मातृ पितृपूजन दिवस एक दिन मनाना प्रारंभ करें और उसे नित्य नियम की तरह प्रतिदिन जारी रखें।
एक दिन एक बहन जी और उनका एक 10 वर्ष के आसपास का बेटा और 7/8 वर्ष की बेटी मेरे पास आए। वह अपने पति से परेशान थी। क्योंकि मैं सदैव सकारात्मक ही प्रयास करता हूँ, तो मैंने उनको कहा आप पति से नाराज़गी का तरीक़ा क्या अपनाते हैं? तो उन्होंने जो सामान्य परिवारों में होता है, वहीं झगड़ा, गाली गलौच, मारपीट आदि बताया।
तब मैंने बताया कि कल मातृ पितृ पूजन दिवस है, बच्चों आप माता पिता जी का पूजन करो। अतीत को भूल जाओ। घर में पिता के सुबह उठने के पहले उत्सव की तरह प्रसन्नता वातावरण बनाओ। सुबह पूरा परिवार पास के या घर के मंदिर में दर्शन करने जाए। माता-पिता का पैर छूकर पूजन करें। जैसे भगवान का करते हैं। शाम को माता-पिता जी के पैर दबाओ, उनको लगे कि कोई स्वप्न तो नहीं देख रहे हैं। उन्होंने यही किया।
फिर रात में मेरे मुझे फ़ोन किया और कहा कि आज का दिन तो दशकों बाद हमारे घर में शांति से बीता। पर कल क्या होगा भय है? मैंने कहा-'कल भी इसे दोहराओ। पिता को नशा करने और उनके अंदर शैतान को प्रवेश का समय ही ना दें। जब बच्चे प्रतिदिन दर्शन करेंगे। सेवा करेंगे, तो पिता में भी सात्विक भाव उत्पन्न होगा। उसे लज्जा होगी। प्रेम भी होगा। परिवार से द्वेष कम होगा और बाहरी लगाव भी। जब आप उसे भगवान की तरह स्थान देंगे, तो वह गटर में जाने से रुकेगा।' दो चार दिन तो परिवार अपडेट देता रहा। बाद में कुछ महीने बाद मिलने आया और घर को स्वर्ग जैसे अनुभूति का वर्णन बताया।
सभी सम्बंधों में वापसी के रास्ते बंद करे, वहाँ रिश्तों में केवल आगे जाने के बारे में आप अपने आप सोचेंगे।
एक दूसरों को देवतुल्य महत्व दें। मातृ पितृ पूजन दिवस इस प्रारंभ के लिए एक अवसर है।
सुरेश चव्हाणके
मुख्य संपादक
सुदर्शन न्यूज चैनल
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