ये भारत की तथाकथित सेकुलर राजनीति भले ही कुछ करवाये लेकिन वीर-वीरांगनाओं ने अपना कर्तव्य निभा ही दिया था. नारियों के लिए जिस देश में आदर्श बना कर टेरेसा को प्रस्तुत किया जाता रहा उसमें वीरांगना सुशीला दीदी जी का नाम भी शामिल हो सकता था लेकिन चाटुकार इतिहासकार व नकली कलमकारों ने जो कुछ किया उसकी क्षमा शायद ही समय के पास हो.
वीरांगना सुशीला दीदी जी जन्म औपनिवेशिक भारत के पंजाब प्रांत में एक आर्मी डॉक्टर के घर हुआ था और उन्होंने अपनी पढ़ाई जालंधर के आर्य महिला कॉलेज से की थी. वह राष्ट्रवादी कविताएं लिखने के लिए जानी जाती थीं और उन्होंने अपने कॉलेज जीवन के दौरान ही राष्ट्रवादी राजनीति में भाग लेना शुरू कर दिया था. बता दें कि सुशीला मोहन जी, जिन्हें लोकप्रिय रूप से सुशीला दीदी जी के नाम से जाना जाता है. वीरांगना सुशीला दीदी जी के 5 मार्च 1905 हुआ था. भारत के क्रांतिकारी स्वतंत्रता संग्राम आंदोलन में एक प्रमुख व्यक्ति थीं.
जब सुशीला दीदी जी कॉलेज की छात्रा थीं, तब भारतीय स्वतंत्रता सेनानियों को फांसी की सजा ने उनके अंदर राष्ट्रवाद जगाया. 1926 में, वह भारत की स्वाधीनता की लड़ाई में योगदान देने के लिए हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन में शामिल हो गईं. जब असेंबली पर बम फेंकने के बाद भगत सिंह जी और बटुकेश्वर दत्त जी पकड़े गए, तो सुशीला दीदी जी और दुर्गा भाभी जी ने मिलकर अन्य क्रांतिकारियों को भागने में मदद की.
वहीं, 1 अक्टूबर 1931 को, उन्होंने अन्य लोगों के साथ मिलकर यूरोपीय सार्जेंट टेलर और उनकी पत्नी को गोली मार दी. कैदियों के मामले का बचाव करने के लिए, उन्होंने 10 तोला सोना दान कर दिया, जो उनकी दिवंगत मां ने उनकी शादी के लिए रखा था. उन्होंने मर्दाना पोशाक पहनकर स्वतंत्रता आंदोलन में भाग लिया और उसके बाद बाल गंगाधर तिलक जी की उग्रवादी पार्टी में शामिल हो गईं. बाद में उसे गिरफ्तार कर जेल भेज दिया गया.
लाहौर षड्यंत्र केस में गिरफ्तारी के पश्चात भगत सिंह जी के मुकदमे की पैरवी के लिए फंड जुटाने के लिए सुशीला दीदी जी चंदा जमा करने कोलकाता पहुंचीं. भवानीपुर में भी एक सभा का आयोजन हुआ और जनता से भगत सिंह जी डिफेंस फंड के लिए धन देने की अपील की गई. अब सुशीला जी ने अपनी नौकरी छोड़ दी और पूरा समय क्रांतिकारी दल को देने लगीं. चंद्रशेखर आजाद जी की सलाह पर भगत सिंह जी और उनके साथियों को छुड़ाने के लिए गांधी-इरविन समझौते में भगत सिंह की फांसी को कारावास में बदलने की शर्त लेकर सुशीला दीदी जी गांधी से मिलने तक गईं, किंतु गांधी ने इस शर्त को समझौते में रखने से साफ इंकार कर दिया था.
आजादी के बाद भी सुशीला जी के अंदर से देशभक्ति की भावना कम नहीं हुई. हालांकि, देश के लिए उन्होंने जो कुछ भी किया उसके बदले सरकार से किसी भी तरह की मदद या इनाम की उम्मीद नहीं रखी. 3 जनवरी 1963 को देश की इस वीर क्रांतिकारी बेटी ने दुनिया को अलविदा कह दिया. अभी वर्तमान में पुरानी दिल्ली के चांदनी चौक में एक सड़क का नाम सुशीला मोहन जी मार्ग है.